Thursday, October 25, 2018

परोपकार की भावना

सावन आते ही घन मेघ घिरे,
बिजली चमकी जब मेघ मिले।
धूल धुएं कण छितराए थे,
पर पानी की कोई बूंद ना थी।।

लाखों लाखों कण धूल धुएं के,
आवारा बच्चों से घूम रहे थे।
उनमें एक सयाना कण था,
जिसका भाग्य उदित होना था।।

उस  कड़ पर जलवाष्प घिरी,
बारिश की पहली बूंद बनी।
बूंद बनी अस्तित्व बना,
जैसे जीवन का निर्माण हुआ।।

मौसम भी अब मस्ताना था,
बारिश होने को आना था।
बूंद बड़ी आकार बड़ा,
इतना बढ़ जाने पर गिर जाना था।।

गिरते गिरते वो सोच रही थी,
थोड़ा सा वो डरी हुई थी।
ज्यों आएगी धरती माता पर,
मिट जायेगा जीवन उसका।।

अंत्य लक्ष्य जब मिट जाना था,
तो चाहत थी एक बड़ी निराली।
परोपकार थी जिसकी खुशबू,
वो प्यास बुझाने के लायक थी।।

ऐसा सोच रही थी जब वो,
तभी पहुंचने वाली थी।
एक कवच यों खुला पड़ा था,
जैसे मगर भूख से बैठा ।।

बूंद गिरी जब बीच कवच के,
बंद हुआ मुख बिंदु कवच का।
इक समय इक मछवारे ने,
उसी कवच से मोती पाया।।

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