चपला चमकी चहुँ ओर दिशा
घर-घर घिरती घन घोर घटा।
रजनी में चंचल चंद्र खिला
पल-पल उभरा फिर मन्द पड़ा।।
सन-सन करता सन्नाटा था
चंचल चपला का आहट था।
पर आँखों के पलकों के नीचे
मानव जाति का ज्वाला था।।
सावन सपने सजते थे जिसमें
वो कोमल आँखें अँगार बनी।
बिन बोले युवती की वाणी
मानव जाति का अभिश्राप बनी।।
दिल मे भावों की उठी लहर
आँखों मे अश्रु लाती थी।
मानो पानी की कोई लहर
सागर तट पर यों आती थी।।
न धरती थी न अम्बर उसका
न संध्या की स्वर्ण लालिमा।
नहीं कोई था उसका अपना
घिरा हुआ था घोर कालिमा।।
न हिलती थी न डुलती थी
भीगी लतिका की एक टहल।
डूबी हुयी थी, बस एक सोच में
मनु सोच रही थी कोई डगर।।
ये डगर नही थी जीने की
ये तो नफरत का प्याला था।
प्यार भरा था, जिसमें पहले
वही आज अँगारा था।।