Thursday, November 7, 2019

युवती

चपला चमकी चहुँ ओर दिशा
घर-घर घिरती घन घोर घटा।
रजनी में चंचल चंद्र खिला
पल-पल उभरा फिर मन्द पड़ा।।

सन-सन करता सन्नाटा था
चंचल चपला का आहट था।
पर आँखों के पलकों के नीचे
मानव जाति का ज्वाला था।।

सावन सपने सजते थे जिसमें
वो कोमल आँखें अँगार बनी।
बिन बोले युवती की वाणी
मानव जाति का अभिश्राप बनी।।

दिल मे भावों की उठी लहर
आँखों मे अश्रु लाती थी।
मानो पानी की कोई लहर
सागर तट पर यों आती थी।।

न धरती थी न अम्बर उसका
न संध्या की स्वर्ण लालिमा।
नहीं कोई था उसका अपना
घिरा हुआ था घोर कालिमा।।

न हिलती थी न डुलती थी
भीगी लतिका की एक टहल।
डूबी हुयी थी, बस एक सोच में
मनु सोच रही थी कोई डगर।।

ये डगर नही थी जीने की
ये तो नफरत का प्याला था।
प्यार भरा था, जिसमें पहले
वही आज अँगारा था।।

सत्य की परछाई

एक समय उदास बैठा था
मन भावों से घिरा हुआ था।
कर्म करूँ या धर्म की सेवा
या कोई उपचार है दूजा।।

धर्म है मेरा पुत्र किसी का
सुख दुख जो भी, होये उसी का।
जिसने मुझे यह पहुँचाया
हर सुख का ऐहसास कराया।।

कोई अगर कंटक लग जाये
धोखे से मुझ को चुभ जाये।
दर्द हुआ उन्हें मुझे से ज्यादा
प्यार किया इससे भी ज्यादा।।

खुद ही भूख प्यास सह लेते
मुझ को कोई खबर नही देते।
पल भर अगर नहीं मिल पाते
क्षण भर में विचलित हो जाते।।

जीवन में जो भी कुछ पाया
हर कण-कण में उनकी छाया।
फिर भी अगर याद न आयें
तो हर धर्म, कर्म मिट जायें।।

पर, जन्म हुआ है कर्म भूमि पर
कर्म किये बिन फल न मिलेगा।
हर फल की अभिलाषा होती
फिर धीरे-धीरे चाहत बढ़ती।।

बढ़ती चाह लालसा देती
धर्म घटा कर, कर्म कराती।
सच्चा कर्म धर्म का ज्ञानी
लालच, अभिलाषा अज्ञानी।।

कर्म करो, पर धर्म मिटे न।
यही सत्य है यही समझना।।

A Night before Marriage

आंखों में कोई नींद नहीं है
फिर भी बंद किये हुये है।
सारी रात पलक नही झपकी
सोयी हुयी मुरझाई पड़ी है।।

कभी कभी उठ जाती है फिर
सहला लेती अपनी बेटी को।
भर आते ममता के आँसू
बह जाते जल की धारा से।।

कौन कहे किससे वो बोले
ये आँसू ऐसे ही जायेंगे।
कल से आँगन हो जाएगा सूना
ये पंक्षी भी इसे याद करेंगे।।

सीधी साधी भोली सी बेटी
दर्द नही सह पायेगी ये।
कैसे रह पायेगी बिन मेरे
ये अंखिया भर आती है फिर से।।

फूट पड़ी चाहत की ममता
फिर भी नहीं बताती उसको।
कहीं जाग न जाये बेटी।
आज यहां सोने दो इसको।।

छलक पड़ी ममता की अंखिया
घिरने लगे मेघ सावन के।
बूंद एक छलकी अँखियों से
गिर जाती अलकों पर उसके।।

वो भी स्वयं नही सोयी थी
बस डूबी हुई थी एक सोच में।
कैसे में मां को समझाऊं
जीवन का हर कोना ऐसा।।

कभी धूप तो कभी छाँव है
कभी स्वयं दुख सुख बन जाता।
कभी खुशी बन जाती गम में
कभी नीर भी हिम बन जाता।।

यही चक्र है, यही चरण है
ये जीवन अनमोल रतन है।
सुख-दुःख तो मन का भ्रम है
इस भ्रम में क्यों मानव का भ्रमण है।।

ये मां-बेटी भी बिन बोले
चाहत की वाणी से बोल रहे है।
कैसे कोई समझ पायेगा
ये  अपने मे ही डूब रहे है।।


मिलन

आँखें आँखों में देख रही
पलकें गिरने से रोक रही ।
इक टक नज़रें ये रुकी पड़ी
मनु नीर बिना जब मीन पड़ी।।

सांसें साँसों को भेद रहीं
आहे आहों से भेंट रहीं।
बाहें बाहों में डोल रहीं,
बढ़ती धड़कन दिल रोक रहीं ।।

बहती मधु मस्त मंद बयार
डोले कच, कुंडल, स्वर्ण हार।
उलझे कर उसके अलकों में
थिरके मन उसके पलकों में।।

बहता रस सोम नयन से यों
पीता मन मृदुल व्याकुल यों ।
गिरता जल हो व्योम से ज्यों
धरती की प्यास बुझाता ज्यों ।।

लाल ओंठ पास अब आते
मधुर-मधुर मिठास जब लाते ।
तब ये नजर शरम सी जाती
पलकें थोड़ी सी झुक जाती ।।

और पास जब दिल आ जाते
बढ़ती धड़कन और बढ़ाते।
एकत्व भाव जागृत हो जाते
आत्म विलीन साधक बन जाते।।