मन रूपी सागर के तट पर, खोज रहा था चंद्र किरण।
विषय वासना के बस होकर भूल गया था स्वर्ण वर्ण।।
गुण सगुण अवगुण बन गये,
अत्र यत्र सर्वत्र भर गये ।
चंचल मेधा रस हीन बनी,
आभा में मन विकार छा गये।।
धर्म सत सुंदर विचार, कभी-कभी आ जाते याद।
मन गीत सुनाने लगता है, कुछ तो कर लेंगे आज।।
निर्मल तरंग फिर नव उमंग,
फिर गुम हो जाती बार-बार।
सपनों के सजने के पहले ही,
छा जाती फिर अंधकार।।
संकल्प ही निस्तेज बना, आते बादे भी भूल गये।
क्रिया- कर्म फल गति दायक है, ये सारे बहु भूल गये।।
विच्छुब्ध क्षुधा मन मे रहती,
थोड़ा सा और कट देंगें त्याग।
तृप्त नही हो सकी कभी ये,
जितना दोगे, उतनी ही प्यास।।
दिल की लहरें अब जाग रहीं,मन पावक को तुम शांत करो,
आत्म ध्यान कर्म में प्रधान दिल की बातों का सम्मान करो।।