Thursday, October 25, 2018

विचलित मन

मन रूपी सागर के तट पर, खोज रहा था चंद्र किरण।
विषय वासना के बस होकर भूल गया था स्वर्ण वर्ण।।

गुण सगुण अवगुण बन गये,
अत्र यत्र सर्वत्र भर गये ।
चंचल मेधा रस हीन बनी,
आभा में मन विकार छा गये।।

धर्म सत सुंदर विचार, कभी-कभी आ जाते याद।
मन गीत सुनाने लगता है, कुछ तो कर लेंगे आज।।

निर्मल तरंग फिर नव उमंग,
फिर गुम हो जाती बार-बार।
सपनों के सजने के पहले ही,
छा जाती फिर अंधकार।।

संकल्प ही निस्तेज बना, आते बादे भी भूल गये।
क्रिया- कर्म फल गति दायक है, ये सारे बहु भूल गये।।

विच्छुब्ध क्षुधा मन मे रहती,
थोड़ा सा और कट देंगें त्याग।
तृप्त नही हो सकी कभी ये,
जितना दोगे, उतनी ही प्यास।।

दिल की लहरें अब जाग रहीं,मन पावक को तुम शांत करो,
आत्म ध्यान कर्म में प्रधान दिल की बातों का सम्मान करो।।

अनजान पंछी

बिन देखे बिन जाने,
जब मिल जाते है दिल अनजाने।
दिल खुद ही दिल से बातें करता,
शब्द नही फिर भी सुख मिलता।।

निशा दिवा हो या संध्या हो ,
हर पल याद सताती रहती।
गहरी नींद रात सावन की,
सपने में जब तुम आ जाती।।

बिन देखे तुझको नजरों ने,
शीतलता का एहसास किया।
बिन पाये तुझको अधरों ने ,
मीठेपन का आभास किया।।

ये प्यार हुआ या इश्क मोहब्बत
या शब्दों का उलट फेर है।
कोई इसे कैसे भी समझे,
हम दोनों की मिलन बेल है।।

प्रेम की साधना

संत बचन पावन सब कहते,
महापुरुष सिद्घ जिन्हें करते।
फिर भी जग भ्रमित हो जाता,
वहीं प्यार नफरत बन जाता।।

वेद पुराण सभी यह गावें,
परोपकार, प्रेम सब बांटे ।
यह जीवन तो एक सफ़र है,
सारा द्रव्य यहीं रह जावे ।।

मां बेटी, या पुत्र वधू हो,
या हो पुत्र पिता का बंधन।
प्रेम गति में सब सुख पावे,
नव उमंग तरंग लह रावें ।।

जब ये प्रेम रूठ सा जाता
चंचल मन दुर्बल हो जाता,
उदित भानु अस्ट हो जाता,
हरा भरा प्रसून झुक जाता।।

यही स्वर्ग अपवर्ग यही है
ये तो एक सफ़र है अपना।
चलो साथ सब सुख यह पावे,
आत्म रहस्य ज्ञान सब पावें ।।

परोपकार की भावना

सावन आते ही घन मेघ घिरे,
बिजली चमकी जब मेघ मिले।
धूल धुएं कण छितराए थे,
पर पानी की कोई बूंद ना थी।।

लाखों लाखों कण धूल धुएं के,
आवारा बच्चों से घूम रहे थे।
उनमें एक सयाना कण था,
जिसका भाग्य उदित होना था।।

उस  कड़ पर जलवाष्प घिरी,
बारिश की पहली बूंद बनी।
बूंद बनी अस्तित्व बना,
जैसे जीवन का निर्माण हुआ।।

मौसम भी अब मस्ताना था,
बारिश होने को आना था।
बूंद बड़ी आकार बड़ा,
इतना बढ़ जाने पर गिर जाना था।।

गिरते गिरते वो सोच रही थी,
थोड़ा सा वो डरी हुई थी।
ज्यों आएगी धरती माता पर,
मिट जायेगा जीवन उसका।।

अंत्य लक्ष्य जब मिट जाना था,
तो चाहत थी एक बड़ी निराली।
परोपकार थी जिसकी खुशबू,
वो प्यास बुझाने के लायक थी।।

ऐसा सोच रही थी जब वो,
तभी पहुंचने वाली थी।
एक कवच यों खुला पड़ा था,
जैसे मगर भूख से बैठा ।।

बूंद गिरी जब बीच कवच के,
बंद हुआ मुख बिंदु कवच का।
इक समय इक मछवारे ने,
उसी कवच से मोती पाया।।