Friday, March 7, 2025

शून्य की समृद्धि

शून्य (का) हुआ प्रतिबिम्ब अनंत यों,

छितरा रहा क्षितिज अम्बर ज्यों।

व्यक्त हुआ अव्यक्त आदि तत्

अभिलक्षित अद्वैत समर्पित।।


तत्–सत्–ॐ, एक अविनाशी,

निर्गुण, परम, काल–वैरागी।

अम्बु तरल सा चेतन निर्मित,

हिम सी रही सघनता जड़ की।।


अनंत हुआ विस्तार जीव का,

यश, अपयश, अपह्रास इसी का।

जन्म–मरण जीव का ढांचा,

रहा एक–रस तत्व प्रधान का।।


चलता रहा उन्नयन अवयन,

बढ़ता रहा काल का भ्रमण।

एक बार फिर वह क्षण आया,

शून्य हुआ संसार क्षितिज सब।।


हुआ शून्य सब अनंत अपार,

नहीं कोई भी इसके पार।

फिर भी माया तृष्णा ऐसी,

नहीं भूख है इसके जैसी।।


भला मैं रव से क्या मांगू,

नीर से नीरज ही मांगू।

मिटे इस जग का अंधियारा,

ज्ञान की वो रश्मि मांगू।।

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